अकबर की धार्मिक नीति का वर्णन करें
प्रश्न : अकबर की धार्मिक नीति का वर्णन करें। -
अथवा, अकबर के सुलह-ए-कुल के विषय में आप क्या जानते हैं?
अथवा, दौन-ए-इलाही के संदर्भ
में अकबर की धार्मिक नीति का परीक्षण करें।
उत्तर:
(i) प्रारंभ से ही अकबर
के विचार उदार, व्यापक एवं महान थे। कालान्तर में विभिन्न धर्मों को मानने वाले
विद्वान, सन्त, धर्मगुरु आदि के सम्पर्क में आने का अवसर उसे मिला। इसके अतिरिक्त
(कस धर्मगुरुओं में गुरु अमरदास, गुरु अर्जुन देव, ईसाई पादरी (जेसुइट)
आदि से भी उसकी मुलाकात
थी। इस प्रकार अकबर ने सभी धर्मों से
अच्छी बातों को सीखा और उसमें धार्मिक सहिष्णुता बढ़ती गयी।
वास्तव में, अकबर प्रारंभ से ही
धर्म के प्रति धर्मान्ध न होकर जिज्ञासु था।
ii.अकबर की धार्मिक नीति में क्रमिक विकास
होता गया। धर्म के प्रति इस जिज्ञासा ने अकबर को अधिक प्रभावित किया और उसने 575 ई. में फतेहपुर सिकरी में एक 'इबादत खाना' नामक भवन बनवाया जहाँ
हिन्दू, इस्लाम, जैन, पारसी, ईसाई, सूफी आदि विभिन्न धर्मों के विद्वानों को बुलाकर उनके साथ धार्मिक गोष्टियों में बह भाग लेता था।
(iii) फलतः धर्मान्धता में से उसका विश्वास उठ गया और वह इस निर्णय पर
पहुँचा कि सभी धर्मों
के मूल सिद्धान्त एक ही हैं और उन्हें
ही सत्य माना जा सकता है।
(iv) 1579 ई. में इस्लाम धर्म के संबंध में उख़ने अपने को सर्वोच्च निर्णायक
घोषित किया और इस
प्रकार कट्टर 'उलेमाओं' के प्रभाव को घटाकर
धार्मिक क्षेत्र में भी स्वयं मुसलमानों का नेता बन गया।
(v) उसका शासन इस्लामी कानूनों और हिदायतों के अनुसार नहीं चलता था
वरन् उसका आधार
'सुलह-ए-कुल' था, जिसका अर्थ होता है सभी के साथ शांति व्यवहार
अर्थात् सार्वलीकिक सहिष्णुता।
(vi) 582 ई. में उसने 'दीन-ए-इलाही' नामक नये धर्म का
प्रतिपादन किया। इसमें प्राय: सभी धर्मों
के सारतत्त्व लिये गये थे। इसमें बाह्य
आडम्बर एवं रीति-रिवाज नाममात्र के थे। इसमें हृदय की पवित्रता
और कक की शुद्धता पर विशेष जोर दिया गया
था। अबुल फज्ल को इस धर्म का पुजारी कहा जा
सकता है।
(vii) अकबर ने बलपूर्वक इस धर्म को किसी पर लादने की कोशिश नहीं की और न
ही इसका प्रचार किया। इस कारण इस धर्म के
अनुयायियों की संख्या बहुत ही कम थी और राजदरबार के बड़े-बड़े
सरदार तथा सरकारी अफसरों ने भी इसे नहीं
अपनाया था। यही कारण है कि इस धर्म को कभी
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