जैन धर्म

 I.जैन धर्म

1. जैन धर्म का संस्थापक महावीर स्वामी को माना जाता है।

 2. ऋग्वेद मे  दो जैन मुनियों--ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि के नाम मिलते है

3.ऋषभदेव को जैन धर्म का आदि प्रवर्तक माना गया है। ये जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर थे।

II.पार्श्वनाथ

1. 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुये। 
2. इनक काल महावीर स्वामी से 250 वर्ष पूर्व का माना जाता है । 
3.पार्श्वनाथ के पिता काशी नरेश अश्वसेन एवं माता वामा थीं। 
4.कुशस्थल की राजकुमारी प्रभावती इनकी पत्नी थीं।

5.30 वर्ष की आयु में इन्होंने राजमोह त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया।


III.महावीर स्वामी-

1.महावीर स्वामी 24वें तीर्थंकर थे |

2..इनका जन्म 540 ई.पू वैशाली, (बिहार) के पास  कुण्डग्राम (वर्तमान मुजफ्फरपुर जिला) में हुआ |

3.इनका वास्तविक नाम वर्द्धमान था

4.सिद्धार्थ इनके पिता थे और इन॒की माता त्रिशला थीं

5.राजकुमारी यशोदा इनकी पत्नी थी|

6.इनकी पुत्री का नाम अणोज्या (प्रियदर्शना) थीं

7.पार्श्वनाथ की तरह महावीर स्वामी ने भी 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग दियां।

8.समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण वेजिन कहंलाये।

9.सम्भवत; इसीलिये उनके अनुयायी जैन कहलाये।

10.72 वर्ष की आयु में पावा में इन्हें 468 ई. पू. निर्वाण प्राप्त हुआ।

11.अपरिमित पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें महावीर स्वामी कहा गया।

IV.जैन धर्म के महाव्रत-- 

महावीर स्वामी ने 5 मुख्य महाब्रतों पर जोर दिया--

(1) सत्य या अमृषा--हमेशा सत्य बोलो, कभी झूठ न बोलो।

(2) अहिंसा--कभी हिंसा मत करो, किसी का दिल न दुखाओ।

(3) अस्तेय--कभी चोरी न करो। किसी का कुछ सामान देखकर ललचाना भी चोरी है।

(4) अपरिग्रह---सम्पत्ति का संग्रह न करो।

(5) ब्रह्मचर्य--इन्द्रियों को वश में रखो।

 

V.जैन धर्म के सिद्धान्त—

ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी ने जो विचार प्रकट किये वे ही जैन धर्म के सिद्धान्त बन गये। ये निम्न हैं--

(1) ईश्वर में अविश्वास--महावीर स्वामी ईश्वर को नहीं मानते थे। न तो ईश्वर इस संसार का रचयिता है और न ही नियंत्रक |

(2) आत्मा का अस्तित्व--महावीर स्वामी आत्मा का अस्तित्व मानते थे। प्रत्येक जीव, पेड़, पौधे सभी में आत्मा है।

(3) कर्मफल एवं पुनर्जन्म--महावीर स्वामी ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को माना है। कर्मफल ही जन्म-मृत्यु का कारण है। आवागमन का सिद्धान्त मनुष्य के कर्म पर आधारित है।

(4) मोक्ष अथवा निर्वाण---सांसारिक तृष्णा बन्धन से मुक्ति को निर्वाण कहा गया है। कर्म-फल से मुक्ति पाकर ही व्यक्ति मोक्ष अथवा निर्वाण कि ओर अग्रसर हो सकता है।

 

VI.जैन धर्म के त्रिरत्न

महावीर स्वामी ने कर्मफल से छुटकारा पाने के लिये त्रिरत्नों को अपनाने पर बल दिया है। ये निम्न हैं-

(1) सम्यक्‌ ज्ञान--सच्चा एवं पूर्ण ज्ञान का होना ही सम्यक्‌ ज्ञान है।

(2) सम्यक्‌ दर्शन---सत्य में विश्वास एवं यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा ही सम्यक्‌ दर्शन है।

(3) सम्यक्‌ आचरण... सच्चा आचरण एबं सांसारिक विषयों से उत्पन्त सूख -दुख के प्रति समभाव ही सम्यक्‌ आचरण है।

VII.जैन संघ

1.जैत संघ मैं भिक्षु, भिक्षुणी, श्रावक एवं श्राविका आते थे।

2.भिक्षु, भिक्षुणी संनन्‍्यासी जीवन व्यतीत करते थे। श्राबक, श्राविका गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे ।

VIII.प्रथम जैन संगीति-- 

1.300 ई. पू. यह संगीति स्थूल-भद्र की अध्यक्षता में पाटलिपुत्र में हुई।भद्गबाहु ने इसका बहिष्कार किया। 

2.इस प्रकार जैन धर्म दो सम्प्रदायों- श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदाय में बँट गया। 

3.इस संगीति में जैन धर्म के सिद्धान्तों का संग्रह एवं ग्रन्थों का संचयन किया गया।

IX.जैन धर्म का प्रसार

1.महावीर स्वामी द्वारा निर्मित गणधर समूह के तहत जैन संघ ने जैन धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फलत: समस्त भारत में यह धर्म तेजी से फैला। 

2.महावीर स्वामी के निर्वाण के समय इस धर्म के अनुयायियों की संख्या लगभग 4,000 थी। 

3.उनके समय ही यह धर्म मगध, कौशल, विदेह एवं अंग राज्य में फैल गया। 

4.दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रसार का श्रेय भद्गबाहु को जाता है।

X.जैन धर्म का प्रसार का कारण 

1.राजकीय संरक्षण--..हर्यक वंश के बिम्बसार, अजातशत्रुउदायिन, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य एवं बिन्दुसार एवं कलिंग राज खारवेल जैन धर्म के अनुयायी थे। इस प्रकार राजकीय संरक्षण का होना इस धर्म के प्रसार में सहायक हुआ।

2. बोल-चाल की भाषा का प्रयोग--इस धर्म के सिद्धान्त साधारण बोल-चाल की भाषा (प्राकृत) में लिखे गये। इससे जनता इनकी ओर आकर्षित हुई। जैन मुनि साधारण भाषा में ही उपदेश देते थे।

 3. सामाजिक समानता--महावीर स्वामी ने जाँति-पाँति का घोर विरोध किया। धर्म के द्वार सभी वर्गों के लिये व स्त्रियों हेतु खोल दिये। फलत: जनसाधारण इस धर्म की ओर आकर्षित हुआ।

4.कर्मकाण्ड धर्म

1.कर्मकाण्ड धर्म के मुख्य अंग बन चुके थे, ब्राह्मणों ने इसे और जटिल तथा आडम्बरपूर्ण बना दिया था। 

2.यज्ञ तथा कर्मकाण्ड की जटिलता से मुक्ति पाने के लिए जनता व्यग्र थी। धर्म विनाश की ओर अग्रसर था। 




ऐसे समय भारत में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ जिन्होंने अपनी शिक्षाओं एवं सिद्धान्तों से कर्मकाण्ड एवं आडम्बरों में जनता को एक सहज, सरल एवं बोधगम्य धर्म रूपी प्रकाश से आलोकित

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