गौतम बुद्ध
गौतम बुद्ध
I.जिवनी
1.गौतम बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ
था।
2.उनका जन्म 563 ई.पु कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में लुम्बनी
ग्राम के आम्रकुंज में हुआ था।
3.इनके पिता शुद्धोधन शाक्य कुल के
क्षत्रियवंशी राजा थे | जिनकी राजधानी
कपिलवस्तु थी।
4.गौतम बुद्ध के जन्म के सातवें दिन ही. माता महामाया का देहान्त हो गया, अत: इनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने इनका लालन-पालन किया।
5.गौतम बुद्ध के जन्म के समय ही उन्हें
देखकर कालदेब तथा ब्राह्मण कौडिन्य ने यह भविष्यवाणी की थी कि वह या तो चक्रवर्ती
राजा बनेंगे अथवा महान संन्यासी।
6.गौतम बुद्ध बचपन से ही चिन्तनशील थे एवं
प्राय: जम्बू वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठे रहते थे।
7.उनकी इन गतिविधियों को देखते हुए 16 वर्ष की आयु में ही गौतम बुद्ध का विवाह पड़ोसी कोलियगण की सुन्दरी कन्या भद्रा कात्यायनी (यशोधरा--इनके अन्य नाम गोपा, बिम्बा भी मिलते हैं) से कर दिया गया।
8.इनका एक पुत्र भी हुआ। किन्तु गौतम
बुद्ध प्रसन्न नहीं हुए वरन् उसे मोह बन्धन का ' राहू' माना एवं उसका नाम
राहुल रखा।
9.गौतम बुद्ध के मन में वैराग्य की भावना को बलवती करने में उनके जीवन सम्बन्धी चार दृश्यों ने अहम् भूमिका अदा की।
ये चार दृश्य थे--.
a. एक जर्जर शरीर वाला वृद्ध,
b. एक रोगग्रस्त व्यक्ति,
c. एक मृत
d.एक प्रसन्न मुद्रा में भ्रमणशील संन्यासी जो सांसारिक मोहों से मुक्त प्रसन्नचित्त था।
10.जहाँ प्रथम तीन दृश्यों को देखकर दुखमय जीवन के प्रति गौतम बुद्ध के. मन में घृणा उत्पन्न हुई, वहीं चौथे दृश्य ने उन्हें दु:ख निरोध का मार्ग दिखाया।
12.एक रात अनेक रमणीय गणिकाओं का नृत्य देखते-देखते गौतम बुद्ध सो गये। रात को अचानक जब उनकी नींद खुली तो साज-श्रृंगार विहीन निद्रामग्न वेश्या उन्हें काफी बदसूरत एवं भयानक दिखायी दीं। कुछ के बाल बिखरे हुए थे एवं कुछ लगभग निर्वस्त्र थीं एवं भयानक खर्राटे भर रही थीं।
13.इस दृश्य क्रम ने गौतम बुद्ध के मन में गृह त्याग की भावना को दृढ़ किया। अंततः पत्नी यशोधरा एवं पुत्र राहुल को सोता छोड़कर 29 वर्ष की आयु में उन्होंने गृह त्याग दिया।
14.गृह त्याग के पश्चात् ज्ञान की खोज में
गौतम बुद्ध अलार कलाम एवं रुद्रक रामपुत्र जैसे
आचार्यों के पास गये परन्तु उन्हें सन्तोस नहीं मिला।
15.तत्पश्चात् कौण्डिन्य, वप्पा, भादिया, महानामा एवं अस्सागी आदि पाँच ब्राह्मणों के साथ घोर तपस्या की।
16.ज्ञान प्राप्त न होने पर तपस्या त्यागी
और सुजाता नामक कन्या के हाथों भोजन ग्रहण किया। इस कारण इन
पाँच ब्राह्मणों ने उनका साथ छोड़ दिया।
17.अब गौतम बुद्ध गया में निरन्जना नदी के
किनारे एक पीपल के वृक्ष के
नीचे इस दृढ़ निश्चय के साथ बैठे कि अब
ज्ञान प्राप्त करके ही रहेंगे।
18.'मार' (कामदेव) के नेतृत्व
में अनेक पैशाचिक तृष्णाओं ने उनकी समाधि भंग करने के अनेक असफल प्रयास किये। अन्तत: आठवें
दिन बैशाख पूर्णिमा को उन्हें
ज्ञान (बोधि) प्राप्त हुआ और वे बुद्ध
कहलाये।
19.ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् बोधगया में ही तपस्सु और भल्लिक नामक दो बंजारों को सर्वप्रथम अपना शिष्य बनाया |
20.गया से ऋषिपत्तन (सारनाथ) पहुँचे। यहाँ पर उन्हें उरुवेला में छूटे पाँच ब्राह्मण साथी कौण्डिन्य, वप्पा, भादिया, महानामा एवं अस्सागी पुन: मिले। इन्हें ही सारनाथ में गौतम बुद्ध ने ज्ञान का अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया।
21.यह धर्मोपदेश ही “' धर्म चक्र प्रवर्तन ' कहलाया।
23.यहीं गौतम बुद्ध ने संघ की भी स्थापना की । प्रथम पाँच ब्राह्मण शिष्यों के अतिरिक्त अनेक वैश्यों सहित काशी का यश नामक धनाढ्य व्यक्ति भी संघ का सदस्य बना।
24.बुद्ध ने संघ के सदस्यों को विभिनन क्षेत्रों में जाकर धर्म प्रचार करने का आदेश दिया।
25.धर्म प्रचार की कड़ी में गौतम बुद्ध
काशी के पश्चात् उरुवेला गये यहाँ काश्यप' नामक कट्टर ब्राह्मण
उनका शिष्य बना।
26.राजगृह पहुँचे तो सारि पुत्र और महामोद्ग्ल्यायन उनके शिष्य बने।
27.भ्रमण करते हुए जब वे कपिलव्स्तु पहुँचे तो महाप्रजापति गौतमी (बुद्ध की मौसी) ने प्रत्नज्या ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की।
28.अपने शिष्य आनन्द “जो नारी के समानाधिकार के सर्वप्रथम प्रचारक हुए' के कहने पर नारी को संघ में सर्वप्रथम प्रवेश दिया ।
29.बाद में बुद्ध के पिता, पत्नी, पुत्र, भाई (देवदत्त) ने भी
बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
30.बाद में शाक्य गणराज्य के राजा भद्रिक, उसके सहयोगी आनन्द, अनुरुद्ध एवं उपालि आदि ने भी बौद्ध धर्म अपनाया।
31.जीवन के अन्तिम समय में पावापुरी में
बुद्ध ने चुन्द नामक सुनार के घर भोजन ग्रहण किया। इस
कारण वे उदर विकार से पीड़ित हुए (कुछ विद्वानों के अनुसार चुन्द के यहाँ माँस खाने से पेचिश हुई ) ।
32.इसी अवस्था में वे कुशीनगर आये। यहीं पर 483 ई. पू. 80 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई । बौद्ध धर्म में इस घटना को महापरिनिर्वाण कहा गया है।
31.महापरिनिर्वाण के पश्चात् गौतम बुद्ध
के अवशेषों को 8 भागों में विभाजित किया गया।
32.मगध के राजा अजातशत्रु ने तथा इस क्षेत्र के गणराज्यों ने स्तूप निर्मित कर बुद्धावशेषों को
सुरक्षित रखा।
33. महान मौर्य सम्राट अशोक ई.पूर्व तीसरी सदी में बौद्ध धर्म के अनुयायी हो
गये।
II.बौद्ध धर्म के सिद्धान्त एवं शिक्षाएँ
1.बौद्ध धर्म बुद्धिवादी धर्म था, इसमें अन्ध विश्वासों
का स्थान नहीं था।
2.बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य के जीवन का चरम
लक्ष्य है निर्वाण प्राप्ति।
3.महात्मा बुद्ध ने अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी से कहा था, ' धर्म वही है जो वीतराग का उपदेश देता है, जो इच्छाओं का दमन करता है।'
4.गौतम बुद्ध ने संसार को दुःख से परिपूर्ण माना तथा इसका प्रमुख कारण तृष्णा को बताया।
III.गौतम बुद्ध को जो ज्ञान प्राप्त हुआ वह
ज्ञान क्या था ?
वस्तुतः यह ज्ञान था कि मानव जीवन कैसे सुखमय हो ।
इसके लिए उन्होंने चार आर्य सत्य एवं अष्टांग मार्ग का अनुसरण आवश्यक बताया।
बौद्ध धर्म समस्त सिद्धान्तों तथा कालान्तर में विकसित विभिन्न दार्शनिक मतों का प्रमुख आधार चार आर्य सत्य हैं। ये हैं--
1.दुःख--गौतम बुद्ध के अनुसार समस्त संसार दु:ख से व्याप्त है। यहाँ जन्म, मरण, जरा (वृद्धावस्था) , व्याधि, अप्रिय का मिलन, प्रिय का वियोग एवं इच्छित वस्तु का प्राप्त न होना आदि सभी दु:ख हैं। तत्सम्बन्ध में
गौतम बुद्ध ने कहा भी है, 'सब्बं दु:ःखं' अर्थात् सभी कुछ दुःख़मय है।
2. दुःख समुदय--समुदय का अर्थ है कारण। गौतम बुद्ध के अनुसार संसार में व्याप्त दुःखों का कोई-न-कोई कारण अवश्य है। उन्होंने
समस्त दु:खों का कारण तृष्णा (पिपासा अथवा लालसा) बतलाया है। आसक्ति एवं राग के उदभव का कारण तृष्णा ही है। आसक्ति के प्रमुख कारण रूप, शब्द, गंध, रस आदि हैं। बुद्ध का मत है कि अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य
बार-बार जन्म लेता है और मनुष्य की यही तृष्णा उसके दुःख का कारण बनती है।
3. दुःख निरोध--निरोध का अर्थ है दूर करना। गौतम बुद्ध ने दुःख निरोध या दुःख निवारण के लिए तृष्णा का उच्छेद या उन्मूलन आवश्यक
बताया है।
4. दुःख निरोध मार्ग--गौतम बुद्ध के अनुसार संसार में प्रिय लगने वाली वस्तु को तृष्णा का परित्याग ही दुःख निरोध मार्ग प्रशस्त करना है।
दुःख का विनाश करने के लिए गौतम बुद्ध ने जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया
उसे दु:ख निरोध गामिनी प्रतिपदा कहा जाता है।
गौतम बुद्ध के अनुसार अष्यंगिक मार्ग दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा है। अर्थात् अष्टांगिक मार्ग का पालन
करने से दुःख का निवारण सम्भव है।
IV.अष्टांगिक मार्ग—
गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित दुःख
निरोध हेतु आठ मार्ग निम्नवत् हैं--
1.सम्यक् दृष्टि--चार आर्य सत्यों की सही परख।
2, सम्यक् वाणी--धर्मसम्मत(धार्मिक नियमों और मान्यताओं के अनुकूल) एवं मृदु वाणी का प्रयोग।
3. सम्यक् संकल्प--भौतिक वस्तु एवं दुर्भावना(बुरी भावना) का त्याग।
4. सम्यक् कर्म--सत् कर्म करना। (अच्छा काम करना)
5, सम्यक् आजीव--सदाचारी जीवन जीते हुए ईमानदारी से आजीविका कमाना ।
6. सम्यक् व्यायाम--विवेकपूर्ण प्रयत्न एवं शुद्ध विचार ग्रहण करना। अशुद्ध विचारों को त्यागते रहना ।
7, सम्यक स्मृति(यदास )--अपने कर्मों के प्रति विवेक तथा सावधानी को सदैव स्मरण रखना। अर्थात् मन, वचन, कर्म की प्रत्येक क्रिया के प्रति सचेत रहना ।
8, सम्यक् समाधि--चित्त की समुचित एकाग्रता जिससे ज्ञान प्राप्त हो सके। लोभ, द्वेष, आलस, बीमारी एवं अनिश्चय की स्थिति से दूर रहने के उपाय करना ही सम्यक् समाधि है। इससे चित्त एकाग्र होगा एवं सुख की प्राप्ति होगी।
बुद्ध के अनुसार यदि व्यक्ति उपर्युक्त अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करे तो वह दु:खों से मुक्त हो निर्वाण की ओर अग्रसर होता है। दु:ख निरोध हेतु गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित यह अष्टांगिक मार्ग मध्यम प्रतिपदा (मध्य मार्ग) कहलाता है। क्योंकि बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के तहत अत्यधिक विलासिता में रत रहना एवं अत्यधिक काया-क्लेश में संलग्न रहना दोनों को वर्जित माना है। गौतम बुद्ध का मानना था कि व्यक्ति को मध्यम मार्ग का अनुशीलन करते हुए शुद्धतापूर्वक नैतिक जीवन व्यतीत करना चाहिए।
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